माँ

@ImaGeees

कभी सोचा है माँ के काँधे कितने दुखते होंगे,

नित नयी जिम्मेदारियों के तले और थोड़ा झुकते होंगे।
कितनी उम्मीदें, आशाएं, उपेक्षाएं बाजुओं को खोंचती होंगी,

वो दिन में मुसकुराती माँ, रात भर नींद में सिसकती होगी।
छू के करना महसूस कैसे माँ के तकिये में संमदर बसते होंगे,

सूखी एड़ियों की दरारों में सौ दर्द चक्की से दरकते होंगे।
याद रखना जब कभी कहो कि माँ सब सम्हाल लेगी, 

क्या हम सदा पास हैं उसके जो हमेशा हमारा साथ देगी?

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गुज़रा साल और तुम

 

तेरे आज और कल के दरमियान,
एक सदी गुज़र गयी एक साल मे.

खोल कर मुट्ठी झान्क कर देख,
पिघला दिल है किस हाल मे.

जिसकी याद मे ठोकरे खायी है,
खुद से खुद का हाल छुपाते,

रुक कर ,मुड के एक बार न देखा,
करके बेहाल गया,उस ख्याल ने।

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नीम

चबाकर थूकी गयी इतनी बार कि महीन हो गयी हूँ।

बीमार की तीमारदारी करते-करते गमगीन हो गयी हूँ!

 

खून सुर्ख पाक किये इतने कि दागदार हो गया दामन।

थोड़ी- थोड़ी कड़वा हो रही हूँ, शायद नीम हो गयी हूँ !

 

(अब तुम कहोगे पलट के; नीम- हकीम खतरा-ए-जान !)

(जाग ऐ ज़मीर, अब तो कर ले अपनी असल पहचान !)

 

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जन्माष्टमी के दिन

जन्माष्टमी के दिन
नवशिशु कान्हा को
दूध से नहलाते हैं,
नये वस्त्र पहनाकर
सोलह श्रंृगार किये
नयी राधा रानी के संग
झूले पर सजाते हैं ।

झांकियाँ निकलती हैं,
ढोल मंजीरों के बीच
कान्हा कान्हा की
हूंकार से गुज़र
हर मूरत नवरत्न सी
चम चम चमकती है।

साल बीत जाता है,
टूटे सितारों वाले
राधा कृष्ण को ,हाथ जोड़े

मिट्टी के माधव संग

पीपल के नीचे
चुपचाप
छोड़ आते हैं।

अगली जन्माष्टमी फिर
एक नया कृष्ण सजाते हैं ।
एक नयी मूरत प्रेमपूर्वक
घर ले आते हैं ।

….आज शाम की सैर के वक्त पार्क में कान्हा जी से हुई मुलाकात का किस्सा ।

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दो दशक

ये अच्छा हुआ कि हम मिले फिर से ,
सदियों बाद ही सही पर मिले तो सही ।
वक़्त की धूल से परे था जो रिश्ता ,
वक़्त देकर उसे नया रंग दिया तो सही।

हाँ , वैसे नहीं जैसे मिला करते थे पहले,
दो दोस्तो की तरह ,बस- मैं और तुम,
अपने दायरों में ज़िन्दगी के मायने तलाशते ,
जिनका कोई माझी न था, न मानी था कोई.

हम मिले ज़िन्दगी के उस मोड़ पर फिर से,
जहाँ तुम उतने ही साधारण थे जितनी की मैं ,
एक मार्गदर्शक, एक हमसफ़र के चेहरों से छुपे,
अपने आगे अपनो के सुख दुःख को जीते हुए।

तुम्हारी खामोश बेचैनी आज भी बोलती है,
मेरे सतही शब्दों में सागर खोज लेते हो तुम ।
तुम्हारे साथ मैं फिर सत्रह की बन जाती हूँ,
वक़्त की शाख गिरने से रोक लेते हो तुम.

वो तूफ़ान तुम्हारे चेहरे के पीछे देखा था पहले,
धीमे धीमे आज भी वो दरिया बन के बहता है.
जो मेरे अनगिनत सवालों से गुज़रा था कभी.
वो उफान सोयी ज्वालामुखी बन धधक रहा है।

 

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