तेरे आज और कल के दरमियान,
एक सदी गुज़र गयी एक साल मे.
खोल कर मुट्ठी झान्क कर देख,
पिघला दिल है किस हाल मे.
जिसकी याद मे ठोकरे खायी है,
खुद से खुद का हाल छुपाते,
रुक कर ,मुड के एक बार न देखा,
करके बेहाल गया,उस ख्याल ने।
तेरे आज और कल के दरमियान,
एक सदी गुज़र गयी एक साल मे.
खोल कर मुट्ठी झान्क कर देख,
पिघला दिल है किस हाल मे.
जिसकी याद मे ठोकरे खायी है,
खुद से खुद का हाल छुपाते,
रुक कर ,मुड के एक बार न देखा,
करके बेहाल गया,उस ख्याल ने।
चबाकर थूकी गयी इतनी बार कि महीन हो गयी हूँ।
बीमार की तीमारदारी करते-करते गमगीन हो गयी हूँ!
खून सुर्ख पाक किये इतने कि दागदार हो गया दामन।
थोड़ी- थोड़ी कड़वा हो रही हूँ, शायद नीम हो गयी हूँ !
(अब तुम कहोगे पलट के; नीम- हकीम खतरा-ए-जान !)
(जाग ऐ ज़मीर, अब तो कर ले अपनी असल पहचान !)
“किस तरह की माँ है ये ?” अखबार को टेबल पर रखते ही मेरे मुँह से आह निकली .
नारी जननी से भक्षक कैसे बन सकती है? मेरे मन को ये सवाल लगातार कचोट रहा था।
“क्या हुआ बहु जी , क्यों परेशान हो रही हो ?” कमरे मे झाड़ू लगाती मेरी मेहरी उषा ने पूछा ।
उषा और उसकी पन्द्रह साल की बेटी पूजा हमारे यहाँ झाड़ू कटके का काम करती है। २ बेटे और ४ बेटियों की माँ उषा हमारे यहाँ कई सालो से है. बेटे निकम्मेऔर पति शराबी ,इसलिये उसकी लड़कियां काम मे उसकी मदद करके घर चलातीं हैं। भूगोल के मैप की तरह उसके चेहरे पर ऊभरती गुम होती आडी टेढी लकीरें उसके बेटो और पति के अत्याचार की कहानी बयाँ कर ही देती हैं।
“लिखा है, दो हफ्तों में ये दूसरी घटना है कि एक माँ ने अपनी बेटी की पैदा होते ही गला दबा कर मार दिया। क्या एक लड़की की माँ होना हमारे समाज में इतना बड़ा अभिशाप है? “ मैं अपने सात महीने के कोख पर हाथ रखते हमारी बातों से अनजान गुड्डा गुड्डी का खेल खेलती प्रिया को देखते बोली।
“नही नहीं बहु जी, उस बिचारी की कोई मज़बूरी रही होगी।अपना जना कोई क्यों मरेगा भला, अभागी लड़की ही बेशक जनि हो . वैसे सच कहूँ, एक लड़का होना भी तो ज़रूरी है . मैं तो कहती हूँ भगवन तुम्हे भी इस बार लड़का ही दे, पिछले बार लड़की हो गयी सो हुई . वंश को भी तो आगे बढाना है ।” उषा का जवाब था.
मैं निशब्द थी और हैरान भी। हमारे देश मे रुढिवादिता ने ऐसा डेरा डाला है कि एक औरत ही औरत होने का महत्त्व नहीं समझती। क्या ये समय कभी बदलेगा ???
पतझड़ बसंत के मौसम में,
आसाँ नहीं पलाश फूल होना.
पल में आस्मां का सितारा,
पल में ज़मीं में धूल होना.
पत्तों को अलविदा कहते
शाखों का ठूँठ का होना !
बरस हर बरस बहार बन,
पाइयों तले मसल मरना।
गुलिस्ताँ का काँटों का होना,
आसाँ नहीं पलाश फूल होना!
गुलिस्ताँ का हो, उसका न होना,
आसाँ नहीं पलाश फूल होना!
~गायत्री
२१०३२०१८
#WorldPoetryDay
बरसों से साल की शुरुवात एक कविता लिख कर करती हूँ. पिछले नए साल पर ये लिखा था, पर जवाब मिले नहीं अभी तक. सवाल बन कुछ इस तरह ज़हन में अटके पड़े हैं :
क्या फिर वही होंगे दिन ,वोही होंगी रात ?
कुछ कच्चे बे-लम्स या होंगे गहरे जज़्बात ?
क्या हैरान कर पायेगा ज़माना किसी रोज़ ?
या चैन लेकर जाएगा करके कभी मदहोश ?
फिर दिल टूटेंगे तो क्या होगा बेहद मलाल ?
चलो फिर भी मुबारक हो तुम्हें नया साल.
एक हर्फ़ एक सिफर से एक ऊपर बुनकर ,
एक पुराना तन पहने नया उजला लिबास.
ऐ नये साल बता, तुझ में नयापन क्या है?
हर तरफ ख़ल्क ने क्यों शोर मचा रखा है?
रौशनी दिन की वही, तारों भरी रात वही,
आज हमको नज़र आती है हर बात वही।
आसमां बदला है अफसोस, ना बदली है जमीं,
एक हिन्दसे का बदलना कोई जिद्दत तो नहीं।
अगले बरसों की तरह होंगे करीने तेरे,
किसे मालूम नहीं बारह महीने तेरे।
जनवरी, फरवरी और मार्च में पड़ेगी सर्दी,
और अप्रैल, मई, जून में होवेगी गर्मी।
तेरे मान-दहार में कुछ खोएगा कुछ पाएगा,
अपनी मय्यत बसर करके चला जाएगा।
तू नया है तो दिखा सुबह नयी, शाम नई,
वरना इन आंखों ने देखे हैं नए साल कई।
बेसबब देते हैं क्यों लोग मुबारक बादें,
गालिबन भूल गए वक्त की कडवी यादें।
तेरी आमद से घटी उमर जहां में सभी की,
‘फैज’ नयी लिखी है यह नज्म निराले ढब की।
*
और मिर्ज़ा ग़ालिब बेशक कह गए थे :
बाजीचा ऐ इ त्फाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ -रोज़ तमाशा मेरे आगे।
*
पर ये तमाशा देख जो हूक उठती है , उसका क्या करें ?
तमाशा :
फिर वही शोर उठेगा ,फिर वही तमाशा होगा,
फिर वही आग लगेगी, फिर वही धुआं होगा ।
क्या होगा ? क्या होगा ?
शोर था, ठहर जाएगा, घाव था, भर जाएगा
पर,
जो मवाद घुल गया है , हवाओं में, शहर दर शहर ,
दौड़ रहा है खौलते ख़ून में ,नफरत से लिपट कर।
घुट रही हैं सांसें जिसकी ,सियासती गिरफ्त में ,
वो बेकस आदमी, बौराई भीड़ में खोया , उलझा,
किधर जाएगा, किधर जाएगा, किधर जाएगा ?
***
चलो फिर भी मुबारक नया साल.
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