“किस तरह की माँ है ये ?” अखबार को टेबल पर रखते ही मेरे मुँह से आह निकली .
नारी जननी से भक्षक कैसे बन सकती है? मेरे मन को ये सवाल लगातार कचोट रहा था।
“क्या हुआ बहु जी , क्यों परेशान हो रही हो ?” कमरे मे झाड़ू लगाती मेरी मेहरी उषा ने पूछा ।
उषा और उसकी पन्द्रह साल की बेटी पूजा हमारे यहाँ झाड़ू कटके का काम करती है। २ बेटे और ४ बेटियों की माँ उषा हमारे यहाँ कई सालो से है. बेटे निकम्मेऔर पति शराबी ,इसलिये उसकी लड़कियां काम मे उसकी मदद करके घर चलातीं हैं। भूगोल के मैप की तरह उसके चेहरे पर ऊभरती गुम होती आडी टेढी लकीरें उसके बेटो और पति के अत्याचार की कहानी बयाँ कर ही देती हैं।
“लिखा है, दो हफ्तों में ये दूसरी घटना है कि एक माँ ने अपनी बेटी की पैदा होते ही गला दबा कर मार दिया। क्या एक लड़की की माँ होना हमारे समाज में इतना बड़ा अभिशाप है? “ मैं अपने सात महीने के कोख पर हाथ रखते हमारी बातों से अनजान गुड्डा गुड्डी का खेल खेलती प्रिया को देखते बोली।
“नही नहीं बहु जी, उस बिचारी की कोई मज़बूरी रही होगी।अपना जना कोई क्यों मरेगा भला, अभागी लड़की ही बेशक जनि हो . वैसे सच कहूँ, एक लड़का होना भी तो ज़रूरी है . मैं तो कहती हूँ भगवन तुम्हे भी इस बार लड़का ही दे, पिछले बार लड़की हो गयी सो हुई . वंश को भी तो आगे बढाना है ।” उषा का जवाब था.
मैं निशब्द थी और हैरान भी। हमारे देश मे रुढिवादिता ने ऐसा डेरा डाला है कि एक औरत ही औरत होने का महत्त्व नहीं समझती। क्या ये समय कभी बदलेगा ???
हम डिग्रीयां लेकर बहुत ज्ञानी होने का घमंड रखते है पर बुनयादी ज्ञान से अनभिग्न हैं. सही गलत में अंतर करने के लिए अपने श्रेष्ठम होने का लोभ हम त्याग नहीं पते, इसलिए ऐसी सोच को दोहे फिरते है
यह सिर्फ लड़के लड़कियों को लेकर नहीं है. जाति को लेकर भी है और धर्म को लेकर भी.
अगर इसका अनुक्रम बनाये तो कुछ ऐसा बनेगा
लिंग > धर्म > जाति > भाषा > रंग
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Shekhar ji,sahi pehchaana aapne. Ma ke writing style ko follow karne ki koshish ki hai ….kuch shabdo mein bahut kuch kehne ka style ajab hai unka.
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अरे माँ जैसी लघु-कथा लिख दी तुम ने। बहुत अच्छी लगी। और लिखा करो।
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