दीपू आज बहुत खुश था .इतना खुश कि ख़ुशी के मारे पूरी रात आँखों ही आँखों में काटी थी, बस कब सुबह हो और उसका ख्वाब पूरा हो!
कल १५ अगस्त जो है . बापू ने उसे वादा किया था कि सुबह उसे स्वंतंत्रता दिवस पर प्रधान मंत्री का भाषण सुनाने लाल किला ले कर जायेंगे।
यूँ तो दिल्ली आये दीपू और उसके बापू को छह महीने हो चले थे पर अभी तक वो दीपू को कहीं घुमाने नहीं ले जा पाया था । फैक्ट्री में सातों दिन काम होता था और बंसिया १२घंटे की शिफ्ट कर रोज़ थके हारे देर रात घर आता था। कल उसकी फैक्ट्री बंद होगी । १५ अगस्त जो है, आज़ादी का दिन।
बिन माँ का आठ साल का दीपू दिल्ली के जहाँगीर पुरी इलाके में एक छोटे सी किराए की झोपडी में अपने पिता बंसिया के साथ रहता था .दीपू मेधावी छात्र था और फैक्ट्री मालिक की कृपा से उसे वही नगर निगम के विद्यालय में चौथी कक्षा में दाखिला मिल गया था . दीपू को शहर अच्छा लगता था .गाँव में तो बड़े लोग उसकी बिरादरी के लोगों को न मंदिर जाने देते ,न कुंए से पानी लेने देते पर यहाँ अलग था .किसी को किसी की जात की परवाह नहीं थी।
दीपू की अपार ख़ुशी का एक कारण और भी था -बापू ने बताया था की वे उसे मेट्रो गाडी से चांदनी चौक ले कर जायेंगे. अपनी झोपडी से सड़क की तरफ भाग भाग कर कितनी बार चम चम करती चमकीली मेट्रो गाडी को हवा में उड़ते जैसे देखा था .मन करता कि जा कर बैठ जाऊं पर खाली जेब और गरीबी रोक देती ।
पर बापू को ओवर टाईम का पैसा मिला था और कल सुबह वो मेट्रो में सवार हो कर हवा से बातें करेगें .अनेक ख्वाब बुनते बुनते आँखों में कट गयी और पौ फटते ही बंसिया ने दीपू को उठा कर बिठा दिया ।
“सुबह हो गयीं है राजा बहिया ,देर न करिबे तैयार होन्ह में , ७ बजे के बाद गाडी न मिलेहु आज बबुआ,१५ अगस्त जो है “।
दीपू फटाफट तैयार हो कर बंसिया के साथ स्टेशन की और चल पड़ा .कदमो में पर लगे थे और चाल हवा से बातें कर रही थी।
“धीरे चले रे बबुआ ,हमर सांस रुक्वत है “.कोयले के कारखाने में काम कर के बंसिया को सांस की तकलीफ हो चली थी पर अपनी गरीबी और मजबूरी कभी दीपू पर नहीं ज़ाहिर की थी उसने।
खुद कैसे भी पुराना फटा कपडा पहनता पर दीपू के कपडे किताबों का बहुत ख्याल रखता .दीपू भी समझदार बच्चा था ,कभी पिता से कुछ नहीं माँगा. उसका सपना था – बड़ा हो कर बहुत पैसे कमाए और अपने पिता को आराम और इज्ज़त की ज़िंदगी दे ।
दीपू के लिए सब नया नया था .मेट्रो स्टेशन इतना सुन्दर था ,इतना विशाल और सुबह-सुबह ही कितने लोग थे वहां पर. पिताजी ने टोकन लिया और दीपू एक मशीन पर सिक्का दिखा कर स्टेशन में प्रवेश किया।
“अरे ,वो क्या ,खुद चलने वाली सीढ़ी बापू!” .दीपू हैरान था पर सबको उस सीढी पर चढ़ता देख कर वो भी बंसिया का हाथ थामें प्लैटफार्म तक पहुँच गया ।
मैट्रो का डब्बा सपने जैसा था ,चमकती सीटें, खुद खुलते बंद होते दरवाज़े और ठंडी ठंडी हवा ..मेट्रो उस रेल गाड़ी से कितनी अलग थी जिस पर भीड़ में जर्नल डब्बे की सीढ़ी पर लटकते हुए वो डरते डरते गाँव से शहर बिना टिकेट आये थे।
दिल्ली शहर दीपू को और भी भा गया ।
लाल किला पर बहुत भीड़ थी, पर पिताजी ने कंधे पर बिठा कर प्रधान मंत्री का भाषण उसको दिखा दिया था .बहुत मज़ा आया दीपू को .प्रधान मंत्री ने कितनी अच्छी बातें बोली थी . आज़ादी के सही मायने, सबका विकास, सबका सम्मान. जात पात, धर्म भेद से आज़ादी। नन्हे दीपू को प्रधानमंत्री की कही सारी बातें समझ नहीं आयी थी पर उसने खूब ज़ोर ज़ोर से तालियाँ बजाई।
प्रधानमंत्री के भाषण के बात पिताजी ने दीपू को चांदनी चौक घुमाया, दिगंबर मंदिर और शीशगंज गुरद्वारे में दर्शन कराये और ढेर सारी चाट खिलायी।
अब समय था वापस घर जाने का .ट्रेन चूँकि कुछ घंटो बाद फिर से चली थी इस वजह से स्टेशन पर बहुत भीड़ थी .टोकन ले कर लम्बी लाइन में दोनों बाप बेटे ने स्टेशन में प्रवेश किया .स्टेशन पर मेट्रो में जाने के लिए लम्बी कतारें थी .दीपू ने कस के बंसिया का हाथ थाम लिया .
१५ – २० मिनट के बाद बहुत धक्का मुक्की के रेले में बहते हुए दोनों किसी तरह से मेट्रो में घडब्बे में घुस पाए थे .बहुत भीड़ थी और दीपू बंसिया का हाथ कस से पकडे़ दरवाज़े के पास किसी तरह खडा हो गया।
२-३ स्टेशन निकले थे की अचानक से एक शोर उठा ,”चोर, चोर ,पकडो, मेरा पर्स चोरी हो गया “.जहाँगीर पुरी स्टेशन आ गया था और एक लंबा मोटा आदमी बंसिया का हाथ पकडे चिल्लाने लगा । लोगो ने अचानक ही बंसिया को प्लैटफार्म पर घसीट कर मारना शुरू कर दिया।
दीपू को कुछ समझ नहीं आ रहा था .वो दौड़ कर भीड़ में घुस गया, ” छोड़ दो मेरे बापू को, बिना टिकट नहीं सफर कर रहे हैं। हमारे पास टिकेट है, देखो, मोल दे कर खरीदा है “।
तभी उसने देखा वो मोटा आदमी चिल्ला रहा था, ” सुबह ही ऐ.टी.एम् से पचीस हज़ार निकाले थे ,इस कंजर से मेरा पर्स चुरा लिया ।”
बंसिया गिड़गिड़ाता रहा,”हम नहीं चुराब, कछु बही ,साहिब हम नहीं चुराब “. लोगों को तलाशी में कुछ नहीं मिला।
“अपने किसी साथी को दे दिया होगा,ये सारे गरीब ऐसे होते है, चोर “.वो आदमी चिल्लाया .”कौन सी कौम का है पूछो तो!” पान चबाते एक तिलकधारी ने माँग की।
बहुत आवाजे मिल गयी उस एक आवाज़ में -“जी हां,ये गरीब होते ही ऐसे है, चोर साले”।
और दीपू को अचानक एहसास हुआ कि शहर में भी सबसे बड़ा जुर्म है गरीब होना !
मेट्रो सिक्यूरिटी ने बाहिर जाने वाले सब लोगो की तलाशी शुरू कर दी थी और आखिर एक लड़के को उपर स्टेशन पर लाये।
“आपका पर्स इस साहबजादे के पास मिला है, शक्ल हुलिए से गरीब तो नहीं लगता ” सिक्यूरिटी वाला व्यंगात्मक तरीके से बोला ।
चोर को देख कर आदमी का चहरा फक्क रह गया . “साहिल,तू !”
लड़का आदमी के पांव पे गिर गया “पापा, मुझे माफ़ कर दो ,प्लीस पापा ,आपने गोआ जाने के लिए पैसे देने से मना कर दिया था ,इसलिये मैंने …ये…पापा ,प्लीस मुझे पुलिस से बचा लो “.
भीड़ छंटनी शुरू हो गयी थी.
“छी,इनका अपना बेटा चोर निकला और बिचारे गरीब आदमी को कितना मारा”।
“बिचारा बेक़सूर आदमी! गरीब होना भी गुनाह है हुज़ूर”. लोग आपस में बुदबुदा रहे थे।
दीपू हैरान था ,ये वो लोग थे जो कुछ देर पहले उसके पिता को चोर कह कर मर रहे थे, और अब वही लोग!!
बंसिया प्लैटफार्म पर औंधे मुँह गिरा दर्द से कराह रहा था .मेट्रो वालो ने उसे मरहम पट्टी के लिए उठाया और साथ ले गए .दीपू को लगा जैसे उसका सपना नहीं भ्रम टूट गया था।
बिखलता हुआ यही बोलता रहा,”गाँव वापस चलो बापू, वहां हम जैसे सही, जो है वो है पर यहाँ तो सारे गिरगिट है ,बात बात पर रंग बदलते है .ये शहर अच्छा नहीं बापू ,घर चलो ,वापस गाँव चलो “।
बंसिया करहाता हुआ दीपू का हाथ पकड़ कर धीरे धीरे घर की और चल पड़ा। वापस गाँव जाने की तैयारी करने के लिए !
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मैं सोचती हूँ क्या यही आज़ादी है?
क्या यही आज़ादी के सही मायने है?
क्या हम सब आज़ादी का सही मतलब जान पाए है या जान पायेंगे?
७० साल बाद आज भी हम सडकों पर,गलियों में ,घरों के अन्दर,बाहर भेद भाव करते है .रंग, रूप, जात पात ,गरीबी ,जातिवाद ,शेत्रवाद के नाम पर मार काट करते है .
अराजकता, भ्रष्टाचार, नफरत की सियासत के चंगुल से क्या कभी हम निकल पायेंगे??
क्या हम अपने आप को रूडढ़िवादिता से मुक्त करा पाएगें??
खैर, जय हिंद!
Happy Independence Day!
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Nice Post.
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thank you Arpit.keep visiting.
gayatri
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आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . आशा है आप अपने विचारो से हिंदी जगत को बहुत आगे ले जायंगे
लिखते रहिये
चिटठा जगत मे आप का स्वागत है
गार्गी
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शुक्रिया आपका.
गायत्री
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इसी तरह सपने और हौसले तोडे जाते हैं इस देश में
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जी सही कहा आपने .
गायत्री
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girgit saa rang badal taa hai ,shahr hi to girgit hota hai ,jahaan “kutta sahab “aadmi kutta hotaa hai .shahr girgit saa hi hotaa hai .veerubhai .————-BADHAAI .
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शुक्रिया.
गायत्री
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great story
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बेहद शुक्रिया.
गायत्री
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एक अच्छी लघुकथा और एक समुचित सवाल ….
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@Raviji :shukriya.sawaal ka jawaab asaan nahi par bahut mushkil bhi nahi.bas ek kadam badaye har koi, manzilen aap ki ba rasta ho jaayengi.
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मैं सोचती हूँ क्या यही आज़ादी है,क्या यही आज़ादी के सही मायने है,क्या हम सब आज़ादी का सही मतलब जान पाए है .
आज भी हम सडको पर,गलियों में ,घरो के अन्दर,बाहर भेद भाव करते है ….रंग, रूप, जात पात ,गरीबी ,जातिवाद ,शेत्रवाद के नाम पर भेद भाव करते है .क्या हम अपने आप को रूदिवादिता से मुक्त करा पाए है ??…..aapke in jajbaat ko mera salaam…..kuchh likh nahin paa rahaa…..aapko padhkar is ghatnaa par kuchh kahane men khud ko asamrth paa rahaa hun…..ek rachnaa se apni pratikriya vyakt karungaa…..
क्या हुआ जो मुहँ में घास है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है…..!!
क्या हुआ जो चोरों के सर पर ताज है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है…..!!
क्या हुआ जो गरीबों के हिस्से में कोढ़ ओर खाज है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है…..!!
क्या हुआ जो अब हमें देशद्रोहियों पर नाज है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है…..!!
क्या हुआ जो सोने के दामों में बिक रहा अनाज है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है…..!!
क्या हुआ जो आधे देश में आतंकवादियों का राज है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है…..!!
क्या जो कदम-कदम पे स्त्री की लुट रही लाज है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है…..!!
क्या हुआ जो हर आम आदमी हो रहा बर्बाद है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है…..!!
क्या हुआ जो हर शासन से सारी जनता नाराज है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है…..!!
क्या हुआ जो देश के अंजाम का बहुत बुरा आगाज है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है…..!!
इस लोकतंत्र में हर तरफ से आ रही गालियों की आवाज़ है
बस इसी तरह से मेरा यह देश आजाद है….!!!!
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@bhootnath ji -shukriya.aapki kavita bahut kuch keh jaati hai .sach me, kya hua ,kuch bhi ho, kam se kam desh to azaad hai.
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